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Showing posts from April, 2024

परा अपरा ,पुरुष प्रकृति।

मैं संपूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूं अर्थात संपूर्ण जगत का मूल कारण हूं। पृथ्वी, जल अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार, इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी जड़ अर्थात अपरा प्रकृति है। इससे दूसरी जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है मेरी जीव रूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति जान।। ।।श्री कृष्ण ।।

20/5/20जन्म मृत्यु।

*संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले है अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं,केवल बीच में ही प्रकट है; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना।* श्री कृष्ण

20/5/20 जय श्री कृष्णा

जिस काल में यह जीव मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।                          श्री कृष्ण गीता

5.12 भरत जी का समाधान

 पूर्व जन्म में में भरत नाम का राजा था। ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों से विरक्त होकर भगवान की आराधना में ही लगा रहता था;तो भी एक मृग में आ सकती हो जाने से मुझे परमार्थ से भ्रष्ट होकर अगले जन्म में मृग बनना पड़ा।14   किंतु भगवान श्री कृष्ण की आराधना के प्रभाव से उस मृग योनि में भी मेरी पूर्व जन्म की स्मृति लुप्त नहीं हुई। इसी से अब मैं जनसंसर्ग से डरकर सर्वदा असंगभाव से गुप्तरूप से ही बिचरता रहता हूं।15   सारांश यह है कि विरक्त महापुरुषों के सत्संग से प्राप्त ज्ञान रोग खड़ग के द्वारा मनुष्य को इस लोक में ही अपने मोह बंधन को काट डालना चाहिए। फिर श्री हरि की लीलाओं के कथन और श्रवण से भगवत स्मृति बनी रहने के कारण व सुगमता से ही संसारमार्ग को पार करके भगवानको प्राप्त कर लेता है। 16

5.13 रहू गण का संशय नाश

 राजा रहुगण ने कहा-अहो! समस्त योनियों में यह मनुष्य जन्म ही श्रेष्ठ है अन्य अन्य लोगों में प्राप्त होने वाले देव आदि उत्कृष्ट जन्मों से भी क्या लाभ है जहां भगवान ऋषिकेश के पवित्र यस उसे शुद्ध अंतःकरण वाले आप जैसे महात्माओं का अधिकाधिक समागम नहीं मिलता। 21 आपके चरण कमलों की रज का सेवन करने से जिनके सारे पाप नष्ट हो गए हैं उन महानुभाव को भगवान की विशुद्ध भक्ति प्राप्त होना कोई विचित्र बात नहीं है मेरा तो आपके दो घड़ी के सत्संग से ही सारा कुतर्क मुल्क अज्ञान नष्ट हो गया है।22 ब्रह्म ज्ञानियों में जो वयोवृद्ध हो उन्हें नमस्कार है, जो शिशु होउन्हे नमस्कार हैं, जो युवा हो उन्हें नमस्कार है और जो क्रीडा रत बालक हूं उन्हें भी नमस्कार है। जो ब्रह्म ज्ञानी ब्राह्मण अवधूत वेश से पृथ्वी पर भी चलते हैं उनसे हम जैसे एश्वर्योन्मत राजाओं का कल्याण हो।23

5.11भरत उपदेश

जड़भरतने कहा--राजन! तुमअज्ञानी होनेपर भी पंडितोके समान ऊपर-उपर की तर्कवितर्क युक्त बात कह रहें हों, इसलिए श्रेष्ठज्ञानियों में तुम्हारी गणना नहीं हो सकती। तत्व ज्ञानी पुरुष इस विचार सिद्ध स्वामी-सेवक आदि व्यवहार को तत्वविचार के समय सत्यरूपसे स्वीकार नहीं करते। 1। लौकिक व्यवहार के समान ही वैदिक व्यवहार भी सत्य नहीं है क्योंकि वेद वाक्य भी अधिकतर गृहस्थी अनुचित यज्ञ विधि के विस्तार में ही व्यस्त है, राग द्वेष आदि दोषों से रहित विशुद्ध तत्वज्ञान की पूरी-पूरी अभिव्यक्ति प्रायः उनमें भी नहीं हुई है। 2। जिससे ग्रस्त उचित यज्ञ आदि कर्मों से प्राप्त होने वाला स्वर्ग आदि सुख स्वप्न के समान हेय नहीं जान पड़ता, उसे तत्वज्ञान कराने में साक्षात उपनिषद वाक्य भी समर्थ नहीं है। 3 जब तक मनुष्य का मन सत्व रज अथवा तमोगुण के वशीभूत रहता है तब तक वह बिना किसी अंकुश के उसकी ज्ञानेंद्रिय और कर्म इंद्रियों से सुबह शुभ कर्म कराता रहता है।4 यह मन वासना में विषय आसक्त गुणों से प्रेरित विकारी और भूत एवं इंद्रिय रूप 16 कलाओं में मुख्य है। यही भिन्न-भिन्न नामों से देवता और मनुष्य आदि रूप धारण करके शरीर रूप उपाधियों

5.10 रहुगण से भेंट

 जड़ भरत ने कहा -राजन! तुमने जो कुछ कहा वह यथार्थ है। उसमें कोई उलाहना नहीं है ।यदि भार नाम की कोई वस्तु है तो ढोने वाले के लिए है, यदि कोई मार्ग है तो वह चलने वाले के लिए है।मोटापन भी उसी का है, यह सब शरीरके लिए कहा जाता है,आत्माके लिए नहीं। ज्ञानीजन ऐसी बात नहीं करते। 9 स्थूलता, कृशता, आधी व्याधि, भूख प्यास, भय  कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा ,प्रेम ,क्रोध, अभिमान और शोक - यह सब धर्म देह अभिमान को लेकर उत्पन्न होने वाले जीव में रहते हैं मुझे इनका लेश भी नहीं है। 10. राजन! तूने जो जीने मरने की बात कही- सो जितने भी विकारी पदार्थ है, उन सभी में नियमित रूप से यह दोनों बातें देखी जाती है; क्योंकि वह सभी आदि अंत वाले हैं।यशस्वी नरेश! जहां स्वामी सेवक भाव स्थिर हो वही आज्ञा पालन आदि का नियम भी लागू हो सकता है 11 तुम राजा हो और मैं प्रजा इस प्रकार की भेद बुद्धि के लिए मुझे व्यवहार के सिवा और कहीं तनिक भी अवकाश नहीं दिखाई देता, परमार्थ दृष्टि से देखा जाए तो किसे स्वामी कहेऔर किसे सेवक, फिर भी राजन तुम्हें यदि स्वामित्व का अभिमान है तो कहो मैं तुम्हारी क्या सेवा करूं। 12 वीरवर ! मैं मत उन्मत्त और

5.9patgendraa/जड़ भरत ब्राह्मण कुल में

 सच है, महापुरुषों के प्रति किया हुआ अत्याचार रूप अपराध इसी प्रकार ज्यों का त्यों अपने ही ऊपर पड़ता है। 19 परीक्षित! जिनकी देह अभिमानरुप शुद्र हृदय ग्रंथि छूट गई है, जो समस्त प्राणियों के सुहृद एवं आत्मा तथा वैरहीन है, साक्षात भगवान की भद्रकाली आदि भिन्न-भिन्न रूप धारण करके अपने कभी ना चूकने वाले कालचक्र रूप श्रेष्ठ शस्त्र से जिनकी रक्षा करते हैं और जिन्होंने भगवान के निर्भय चरण कमलो का आश्रय ले रखा है- उन भगवत भक्त परमहंसओं के लिए अपना सिर कटने का अवसर आने पर भी किसी प्रकार व्याकुल ना होना-यह कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। 20

5.8 patgendraa/मृग. मोह.योनि.

अहो! बड़े खेद की बात है मैं संयम सील महानुभाव के मार्ग से प्रतीत हो गया मैंने तो धैर्य पूर्वक सब प्रकार की आसक्ति छोड़कर एकांत और पवित्र वन का आश्रय लिया था वहां रहकर जिस चित्र को मैंने सर्व भूतात्मा श्री वासुदेव में निरंतर उन्हीं के गुणों का श्रवण मनन और संकीर्तन करके तथा प्रत्येक पल को उन्हीं की आराधना और स्मरण आदि से सफल करके स्त्री भाव से पूर्णतया लगा दिया था , मुझ अज्ञानी का वही मन अकस्मात एक नन्हे से हर इन शिशु के पीछे अपने लक्ष्य से चुप हो गया। 29

5.20द्वीप,पर्वत,patgendraa

 अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोक पर्वत का वर्णन जिस प्रकार मेरु पर्वत जंबूद्वीप से गिरा हुआ है उसी प्रकार जम्मूतवी भी अपने ही समान परिमाण और विस्तार वाले खारे जल के समुद्र से परिवेश स्थित है। क्षार समुद्र भी लक्षदप से गिरा हुआ है। Shalmali dweep 7 खुशदीप13 क्रौंच द्वीप 18 Shak drip 24. पुष्कर द्वीप 29 लोकालोक पर्वत34

5.21सूर्यका रथ,patgendraa

 सूर्य का रथ तथा उसकी गति का वर्णन परिमाण और लक्षणों के सहित इस भूमंडल का जितना विस्तार है इसी के अनुसार विद्वान लोग जो लोग का भी परिमाण बताते हैं जिस प्रकार चना मटर आदि के दो दलों में से एक का स्वरूप जान लेने से दूसरे का भी जाना जा सकता है उसी प्रकार ब** लोग के परिमाण से ही जो लोग का भी परिमाण जान लेना चाहिए इन दोनों के बीच में अंतरिक्ष लोक है यह इन दोनों का संधि स्थान है। 2 इस के मध्य भाग में स्थित ग्रह और नक्षत्रों के अधिपति भगवान सूर्य अपने ताप और प्रकाश से तीनों लोगों को तड़पाते और प्रकाशित करते रहते हैं। वे उत्तरायण दक्षिणायन और विषुवत नाम वाली क्रमशः मंद सिद्ध और समान गति से चलते हुए समय अनुसार मकर आद राशियों में ऊंचे नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन रात को बड़ा छोटा या समान करते हैं3 जब सूर्य भगवान मेष या तुला राशि पर आते हैं तब दिन-रात समान हो जाते हैं जब रस आदि 5 राशियों में चलते हैं। तब प्रति मास यात्रियों में केके घड़ी कम होती जाती है और उसी हिसाब से दिन बढ़ते जाते हैं 4। जब वृश्चिक राशि 5 राशियों में चलते हैं तब दिन और रात रियो में इसके विपरीत परिवर्तन होता है 5 इस प्रकार

5.16 भुवनकोशका वर्णन

 Patgendraa जहां तक सूर्य का प्रकाश है और जहां तक तारामंडल के सहित चंद्र देव दीख पडते हैं, वहां तक भू मंडल का विस्तार है।1 इसमें सात समुद्र हैं, जिनके कारण इस भूमंडल में सात द्वीपों का विभाग हुआ। इन सब का परिमाण और लक्षणों के सहित पूरा विवरण क्या है?2 जो मन भगवान के इस गुण में, स्थूल विग्रह में, लग सकता है उसी का उनके वासुदेव स्वरुप,एक ,स्वयं प्रकाश, निर्गुण, ब्रह्म रूप, सूक्ष्मतम स्वरूप में भी लगना संभव है; इस विषय का विशेष रूप से वर्णन क्या है?3.

5.15 भरतके वंश का वर्णन

 सुमति देवताजित  देवधुम्न  परमेष्ठि  प्रतीह-" इसने अन्य पुरुषों को आत्म विद्या का उपदेश कर स्वयं शुद्ध चित्त होकर परम पुरूष श्री नारायण का साक्षात अनुभव किया था।" गय

5.7 भरत चरित्र

भरत s/o ऋषभदेव h/o पंचजनी f/o सुमति, राष्ट्र भृत, सुदर्शन, आवरण और धूम्र केतु,r/o अजनाभ-वर्ष (हाला) भारत वर्ष. उदित हुए सूर्य मंडल में सूर्य संबंधिनी ऋचाओं द्वारा ज्योतिर्मय परमपुरुष भगवाननारायण की आराधना करते और इस प्रकार कहते - "भगवान सूर्य का कर्मफलदायक तेज प्रकृति से परे है। उसीने संकल्प द्वारा इस जगत की उत्पत्ति की है। फिर वही अंतर्यामी रूप से इसमें प्रविष्ट होकर अपनी चित्त-शक्ति द्वारा विषय लोलुप जीवों की रक्षा करता है। हम उसी बुद्धिप्रवर्तक तेज की शरण लेते हैं।" भागवत महापुराण स्कंध 5 अध्याय 7 श्लोक 14. भागवत महापुराण आज

5.14patgendraa:भवाट्वीका स्पष्टीकरण

देहअभिमानी जीवों के द्वारा सत्वादि गुणों के भेद से शुभ, अशुभ और मिश्र_तीन प्रकार के कर्म होते रहते हैं। उन कर्मों के द्वारा ही निर्मित नाना प्रकार के शरीरों के साथ होने वाला जो संयोग_वियोगआदिरूप अनआदि संसार जीव को प्राप्त होता है, उसके अनुभव के 6 द्वार हैं _मन और पांच ज्ञानेंद्रियां। ॐ भागवत स्कंध 5/अध्याय14/श्लोक 1 जिस प्रकार यदि किसी खेत के बीजों को अग्नि द्वारा जला न दिया गया हो, तो प्रतिवर्ष जोतने पर भी खेती का समय आने पर वह फिर झाड़_झंकाड,लता और तृणआदि से गहन हो जाता है_ उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम भी कर्मभूमि है, इसमें भी कर्मों का सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता, क्योंकि यह घर कामनाओं की पिटारी है। ॐ भागवत स्कंध 5/अध्याय 14/श्लोक 4