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5.14patgendraa:भवाट्वीका स्पष्टीकरण

देहअभिमानी जीवों के द्वारा सत्वादि गुणों के भेद से शुभ, अशुभ और मिश्र_तीन प्रकार के कर्म होते रहते हैं। उन कर्मों के द्वारा ही निर्मित नाना प्रकार के शरीरों के साथ होने वाला जो संयोग_वियोगआदिरूप अनआदि संसार जीव को प्राप्त होता है, उसके अनुभव के 6 द्वार हैं _मन और पांच ज्ञानेंद्रियां।

ॐ भागवत स्कंध 5/अध्याय14/श्लोक 1

जिस प्रकार यदि किसी खेत के बीजों को अग्नि द्वारा जला न दिया गया हो, तो प्रतिवर्ष जोतने पर भी खेती का समय आने पर वह फिर झाड़_झंकाड,लता और तृणआदि से गहन हो जाता है_ उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम भी कर्मभूमि है, इसमें भी कर्मों का सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता, क्योंकि यह घर कामनाओं की पिटारी है।

ॐ भागवत स्कंध 5/अध्याय 14/श्लोक 4

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5.23 शिशुमार चक्र

 शिशुमार चक्र का वर्णन सप्त ऋषियों से तेरह लाख योजन ऊपर जो लोक हैं। इसे भगवान विष्णु का परम पद कहते हैं ।यहां उत्तानपाद के पुत्र परम भगवत भक्त ध्रुव जी विराजमान हैं ।अग्नि, इंद्र,प्रजापति, कश्यप और धर्म यह सब एक साथ अत्यंत आदर पूर्वक इन की प्रदक्षिणा करते रहते हैं ।अब भी कल्प पर्यंत रहने वाले लोक इन्हीं के आधार स्थित है। इनका इस लोक का प्रभाव हम पहले वर्णन कर चुके हैं।1   सदा जागते रहने वाले भगत गति भगवान काल के द्वारा जो ग्रह नक्षत्र आदि ज्योतिर गण निरंतर घुमाया जाते हैं भगवान ने ध्रुव लोक को ही उन सब के आधार स्तंभ के रूप में नियुक्त कियाहै। अतः यह एक ही स्थान में रहकर सदा प्रकाशित होता है। 2 ज्योतिष चक्र का शिशुमार के रूप में वर्णन -4. यह शिशुमार कुंडली मारे हुए हैं और इसका मुंह नीचे की ओर है इसकी पूछ के सिरे पर ध्रुव स्थित है पूछ के मध्य भाग में प्रजापति अग्नि इंद्र और धर्म है पूछ की जड़ में दाता और विधाता है इसके कटी प्रदेश में सप्त ऋषि है यह शिशुमार दायिनी और को सिकुड़ कर कुंडली मारे हुए हैं अभिजीत से लेकर पुनर्वसु पर्यंत जो उत्तरायण के 14 नक्षत्र है वह इसके दाहिने भाग मे...