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5.14patgendraa:भवाट्वीका स्पष्टीकरण

देहअभिमानी जीवों के द्वारा सत्वादि गुणों के भेद से शुभ, अशुभ और मिश्र_तीन प्रकार के कर्म होते रहते हैं। उन कर्मों के द्वारा ही निर्मित नाना प्रकार के शरीरों के साथ होने वाला जो संयोग_वियोगआदिरूप अनआदि संसार जीव को प्राप्त होता है, उसके अनुभव के 6 द्वार हैं _मन और पांच ज्ञानेंद्रियां।

ॐ भागवत स्कंध 5/अध्याय14/श्लोक 1

जिस प्रकार यदि किसी खेत के बीजों को अग्नि द्वारा जला न दिया गया हो, तो प्रतिवर्ष जोतने पर भी खेती का समय आने पर वह फिर झाड़_झंकाड,लता और तृणआदि से गहन हो जाता है_ उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम भी कर्मभूमि है, इसमें भी कर्मों का सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता, क्योंकि यह घर कामनाओं की पिटारी है।

ॐ भागवत स्कंध 5/अध्याय 14/श्लोक 4

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5.11भरत उपदेश

जड़भरतने कहा--राजन! तुमअज्ञानी होनेपर भी पंडितोके समान ऊपर-उपर की तर्कवितर्क युक्त बात कह रहें हों, इसलिए श्रेष्ठज्ञानियों में तुम्हारी गणना नहीं हो सकती। तत्व ज्ञानी पुरुष इस विचार सिद्ध स्वामी-सेवक आदि व्यवहार को तत्वविचार के समय सत्यरूपसे स्वीकार नहीं करते। 1। लौकिक व्यवहार के समान ही वैदिक व्यवहार भी सत्य नहीं है क्योंकि वेद वाक्य भी अधिकतर गृहस्थी अनुचित यज्ञ विधि के विस्तार में ही व्यस्त है, राग द्वेष आदि दोषों से रहित विशुद्ध तत्वज्ञान की पूरी-पूरी अभिव्यक्ति प्रायः उनमें भी नहीं हुई है। 2। जिससे ग्रस्त उचित यज्ञ आदि कर्मों से प्राप्त होने वाला स्वर्ग आदि सुख स्वप्न के समान हेय नहीं जान पड़ता, उसे तत्वज्ञान कराने में साक्षात उपनिषद वाक्य भी समर्थ नहीं है। 3 जब तक मनुष्य का मन सत्व रज अथवा तमोगुण के वशीभूत रहता है तब तक वह बिना किसी अंकुश के उसकी ज्ञानेंद्रिय और कर्म इंद्रियों से सुबह शुभ कर्म कराता रहता है।4 यह मन वासना में विषय आसक्त गुणों से प्रेरित विकारी और भूत एवं इंद्रिय रूप 16 कलाओं में मुख्य है। यही भिन्न-भिन्न नामों से देवता और मनुष्य आदि रूप धारण करके शरीर रूप उपाधियों