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5.10 रहुगण से भेंट

 जड़ भरत ने कहा -राजन! तुमने जो कुछ कहा वह यथार्थ है। उसमें कोई उलाहना नहीं है ।यदि भार नाम की कोई वस्तु है तो ढोने वाले के लिए है, यदि कोई मार्ग है तो वह चलने वाले के लिए है।मोटापन भी उसी का है, यह सब शरीरके लिए कहा जाता है,आत्माके लिए नहीं। ज्ञानीजन ऐसी बात नहीं करते। 9

स्थूलता, कृशता, आधी व्याधि, भूख प्यास, भय  कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा ,प्रेम ,क्रोध, अभिमान और शोक - यह सब धर्म देह अभिमान को लेकर उत्पन्न होने वाले जीव में रहते हैं मुझे इनका लेश भी नहीं है। 10.

राजन! तूने जो जीने मरने की बात कही- सो जितने भी विकारी पदार्थ है, उन सभी में नियमित रूप से यह दोनों बातें देखी जाती है; क्योंकि वह सभी आदि अंत वाले हैं।यशस्वी नरेश! जहां स्वामी सेवक भाव स्थिर हो वही आज्ञा पालन आदि का नियम भी लागू हो सकता है 11

तुम राजा हो और मैं प्रजा इस प्रकार की भेद बुद्धि के लिए मुझे व्यवहार के सिवा और कहीं तनिक भी अवकाश नहीं दिखाई देता, परमार्थ दृष्टि से देखा जाए तो किसे स्वामी कहेऔर किसे सेवक, फिर भी राजन तुम्हें यदि स्वामित्व का अभिमान है तो कहो मैं तुम्हारी क्या सेवा करूं। 12

वीरवर ! मैं मत उन्मत्त और जड़ के समान अपनी ही स्थिति में रहता हूं।मेरा इलाज करके तुम्हें क्या हाथ लगेगा, यदि मैं वास्तव में जड़ और प्रमाद ही हूं तो भी मुझे शिक्षा देना पिसे हुए को पीसने के समान व्यर्थ ही होगा 13

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5.14patgendraa:भवाट्वीका स्पष्टीकरण

देहअभिमानी जीवों के द्वारा सत्वादि गुणों के भेद से शुभ, अशुभ और मिश्र_तीन प्रकार के कर्म होते रहते हैं। उन कर्मों के द्वारा ही निर्मित नाना प्रकार के शरीरों के साथ होने वाला जो संयोग_वियोगआदिरूप अनआदि संसार जीव को प्राप्त होता है, उसके अनुभव के 6 द्वार हैं _मन और पांच ज्ञानेंद्रियां। ॐ भागवत स्कंध 5/अध्याय14/श्लोक 1 जिस प्रकार यदि किसी खेत के बीजों को अग्नि द्वारा जला न दिया गया हो, तो प्रतिवर्ष जोतने पर भी खेती का समय आने पर वह फिर झाड़_झंकाड,लता और तृणआदि से गहन हो जाता है_ उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम भी कर्मभूमि है, इसमें भी कर्मों का सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता, क्योंकि यह घर कामनाओं की पिटारी है। ॐ भागवत स्कंध 5/अध्याय 14/श्लोक 4

5.23 शिशुमार चक्र

 शिशुमार चक्र का वर्णन सप्त ऋषियों से तेरह लाख योजन ऊपर जो लोक हैं। इसे भगवान विष्णु का परम पद कहते हैं ।यहां उत्तानपाद के पुत्र परम भगवत भक्त ध्रुव जी विराजमान हैं ।अग्नि, इंद्र,प्रजापति, कश्यप और धर्म यह सब एक साथ अत्यंत आदर पूर्वक इन की प्रदक्षिणा करते रहते हैं ।अब भी कल्प पर्यंत रहने वाले लोक इन्हीं के आधार स्थित है। इनका इस लोक का प्रभाव हम पहले वर्णन कर चुके हैं।1   सदा जागते रहने वाले भगत गति भगवान काल के द्वारा जो ग्रह नक्षत्र आदि ज्योतिर गण निरंतर घुमाया जाते हैं भगवान ने ध्रुव लोक को ही उन सब के आधार स्तंभ के रूप में नियुक्त कियाहै। अतः यह एक ही स्थान में रहकर सदा प्रकाशित होता है। 2 ज्योतिष चक्र का शिशुमार के रूप में वर्णन -4. यह शिशुमार कुंडली मारे हुए हैं और इसका मुंह नीचे की ओर है इसकी पूछ के सिरे पर ध्रुव स्थित है पूछ के मध्य भाग में प्रजापति अग्नि इंद्र और धर्म है पूछ की जड़ में दाता और विधाता है इसके कटी प्रदेश में सप्त ऋषि है यह शिशुमार दायिनी और को सिकुड़ कर कुंडली मारे हुए हैं अभिजीत से लेकर पुनर्वसु पर्यंत जो उत्तरायण के 14 नक्षत्र है वह इसके दाहिने भाग में है। और

5.11भरत उपदेश

जड़भरतने कहा--राजन! तुमअज्ञानी होनेपर भी पंडितोके समान ऊपर-उपर की तर्कवितर्क युक्त बात कह रहें हों, इसलिए श्रेष्ठज्ञानियों में तुम्हारी गणना नहीं हो सकती। तत्व ज्ञानी पुरुष इस विचार सिद्ध स्वामी-सेवक आदि व्यवहार को तत्वविचार के समय सत्यरूपसे स्वीकार नहीं करते। 1। लौकिक व्यवहार के समान ही वैदिक व्यवहार भी सत्य नहीं है क्योंकि वेद वाक्य भी अधिकतर गृहस्थी अनुचित यज्ञ विधि के विस्तार में ही व्यस्त है, राग द्वेष आदि दोषों से रहित विशुद्ध तत्वज्ञान की पूरी-पूरी अभिव्यक्ति प्रायः उनमें भी नहीं हुई है। 2। जिससे ग्रस्त उचित यज्ञ आदि कर्मों से प्राप्त होने वाला स्वर्ग आदि सुख स्वप्न के समान हेय नहीं जान पड़ता, उसे तत्वज्ञान कराने में साक्षात उपनिषद वाक्य भी समर्थ नहीं है। 3 जब तक मनुष्य का मन सत्व रज अथवा तमोगुण के वशीभूत रहता है तब तक वह बिना किसी अंकुश के उसकी ज्ञानेंद्रिय और कर्म इंद्रियों से सुबह शुभ कर्म कराता रहता है।4 यह मन वासना में विषय आसक्त गुणों से प्रेरित विकारी और भूत एवं इंद्रिय रूप 16 कलाओं में मुख्य है। यही भिन्न-भिन्न नामों से देवता और मनुष्य आदि रूप धारण करके शरीर रूप उपाधियों